Thursday, July 12, 2018

पहली बार अपने बेटे के लिए कुछ लिखा

कल शाम जब घर आया
बच्चो वाला घर है यह,
एहसास पहली बार पाया
ड्राइंग रूम की ख़ामोशी ,
आज कुछ अलग जान पड़ती थी
शायद गुजरा था कोई तूफ़ान
ऐसी सी कुछ , भान पड़ती थी
कौतुहल ,मुश्किल से  हमने संभाला
लैपटॉप के बास्ते को एक कोने में डाला
खाने का डिब्बा था अभी हाथ में ही लिया
और धीरे धीरे , रसोई का रुख किया
देख हालत रसोई की , आँखे फ़ैल आई
अपने डब्बा रखने की जगह भी हमने न पाई
फर्श पर फैले वो चिप्स के टुकड़े
मानो हमे चिड़ा रहे थे
दम है तो कदम यहाँ रखो,
संकेत उनसे कुछ ऐसे आ रहे थे
जैसे तैसे जगह बना
डिब्बा हमने अपना टिकाया
और हिम्मत जुटा
बैडरूम की तरफ कदम बढ़ाया
देख बैडरूम की हालत
बात तुरंत समझ आई
आज किसीने किसीको
याद छठी के दूध की दिलाई
शायद ही थी कोई चीज़
जो अपनी जगह टिक पाई
बाकी तो लगता मानो
पूरब-पश्चिम  ने जगह बदलाई
चादर तकिये , खेल-खिलौने
सब जान बचते पाये थे
कुर्सी मेज़ सब , बदहवास पाये थे
औंधे पड़े , दिन में तारे गिनते नज़र आये थे
नमकीन - बिस्किट्स भी बेचारे
कारपेट पर हाँफते पाये
देख सब यह विहंगम दृश्य
थोड़े से हम झुँन्झलाए
डाली जब निगाह हमने साहेब बहादुर पर
मुस्कान लिए चेहरे पर, सोते वो नज़र आये
देख सारा नज़ारा , हम समझ गए
श्रीमति जी ने आज तूफ़ान में दोपहर बिताई
ऐसे तूफ़ान  तो शायद अब  यदा-कदा आयेंगे
"कार्तिक" बाबू अब जल्दी ही अपनी दूसरी वर्षगांठ मनायेगे

नया जमाना , नई सोच

जिंदगी का एक सवाल 
बहुत मुझे खाये जाता हैं 
क्या मेरा रुपया 
आठ आनो  में चलाया जाता है
चाह नहीं आँगन में 
झाड़ एक रुपयों का लग  जाये 
पर जो चलता सवा में रुपया और का 
मेरा बारह आनो में तो जाये 
तनिक अभिलाषा नहीं 
जीवन वैभव से भर जाये 
पर तरसे हर सुविधा को 
बात जी को बहुत जलाये 
ठीक ठाक है वैसे तो कमाया 
चंद पैसे मैं जोड़ भी पाया 
बात फिर भी यह  समझ न पाया 
सामाजिक स्तर  जाने क्यों नज़र न आया 
घर , गाडी और समान 
अभी हमसे तो न बन  पाये  
अपना घर , बड़ी गाडी और वैभव विलास 
राम ही जाने , संगी कैसे हैं जुटाये 
खुशियाँ  किसी की कभी 
विचलित न हमे कर पाईं
अपनी वाली कहाँ छुपी हैं 
बस यही बात समझ न आई
बढती महंगाई का तो दोष नहीं 
यह राक्षशी तो चहु ओर छाई 
या कंजूसी नहीं वो चुड़ैल 
खुशियां मेरी जिसने खाईं 
या है से आज की पीढ़ी की 
बदलती हुई नई  सोच  
"अरे कल किसने देखा है 
बस भाईया , आज की ही सोच "
परिवर्तन के इस युग में 
जीवन में बड़ी  कठिनाई 
एक तरफ कुआ दिखे 
दूजी और खाई 
आज कमा , कुछ खर्चे कुछ जोड़े 
और खुशियाँ भविष्य पर छोड़े 
या जड़े इस नई  सोच से 
कहता जो नया जमाना 
कल की चिंता क्या करनी 
आज कमाना और आज ही खाना

सम्मान के अधिकारी

ऐसा लगता अक्ल पर हमारी
जो पड़े हों कुछ पत्थर भारी
परख भले बुरे की
मति अब न करती हमारी
दुसरो से  तो क्या,
खुद से धोखा खाते है
हर चमकती चीज़ को ,
हम  सोना समझ जाते हैं
दें  किसे कितनी एहमियत
यह गणित, हम नहीं कर पाते
होने थे जो हमारे आदर्श
नाम वो सुनने को न अब आते है
माला अब "नायक" विशेषों की
लोग जपते अब नज़र आते हैं
विदाई पर एक शहीद की
आँसू न हमे अब आते है
और मरे कोई अभिनेता
शोक सन्देश हर ओर छा जाते है
इनके जन्मदिन , नाती पोते
समाचार पत्र में मुख्य पृष्ठ पर आते
गरीबों के त्यौहार की जरूरते
किसी समाचार पत्र में स्थान न पाते
विवाह समारोह कुछ विशेषों के
आजकल सीधे प्रसारित किये जाते
और बड़ा अचरज तो ये
मधुमास के चित्र भी अब आम किये जाते
कुछ  अति-उत्साहियों का उत्साह
कभी कभी तो ग़ज़ब ही बन पड़ता
जिस ने न जोड़ो हो हाथ माँ बाप को भी
चरणों में इन महानुभावो के जा पड़ता
भूखे रहते , धक्के खाते
कभी कभी तो , थप्पड़ तक पड़जाते
बस एक झलक को सब सह जाते
मानो जैसे जीवन तर जाते
ख्याति शिखर तक , जिन्हे हम पहुचाये
करोड़ो हमसे , जिन्होंने कमाये
देख सोच उन्हें हम  हैं बबरा जाते
गिनती में उनकी,  कहीं दूर हम न आते
खेल कूद , कला साहित्य
बेशक मन हमारा बहलाते
काम नहीं ये सबके बसका
बात यह भी हम मानते
पर वास्तविकता अपनी परीस्थियों की
जाने क्यों सारे पक्ष भूल जाते
देश पर होते बलिदान सिपाही के
हाथ बसचंद पैसे ही क्यों आते
और कर कुछ तीरंदाज़ी
जाने  पैसे कितने बरस जाते
नहीं कहता कोई
मनोरंजन तुम अपना भूल जाओ
नहीं कहता कोई
अमीरी गरीबी का  फर्क  मिटाओ
और कर कुछ तीरंदाज़ी
जाने  पैसे कितने बरस जाते
नहीं कहता कोई
मनोरंजन तुम अपना भूल जाओ
नहीं कहता कोई
अमीरी गरीबी का  फर्क  मिटाओ
और है  छूट
जिसे चाहे,  आदर्श बनाओ
बस ध्यान रहे
अपनी मानवता न भूलना
और भी बहुत है सम्मान के अधिकारी
भूल न उनको  कभी जाना
हैं खुशीयों को तरसती
बहुत सी आँखे
आँखे कभी

न उनसे चुराना।

Monday, March 31, 2014

क्या सूरत बदल पायेगी ...

गर लगाने भर से एक ठप्पा
और दबाने भर से एक बटन
जो सूरत-ऎ -हाल बदल जाते
हम कहीं के कहीं नज़र आते !
जो बने है आज  बुलद दरख्त
जमींदोज़ शायद वो नज़र आते !
हमारे ईमान की कमज़ोरी
काम उनके कुछ यों आ गई
चंद लोमड़ों की फ़ौज
शेरों की  बस्ती को खा गई !
लालच की बदलियाँ
कुछ इस कदर हैं छाईं
शैतान खड़े  थे सामने
और सूफी दिये दिखाई !
खुदगर्ज़ी की चली यों  सर्द हवा
दौड़ता लहू अपनी रगो में जमा
जो तुम कटोगे, एक आंसू न बहेगा
और जान दोगे  बस मुफत में गवां  !
बोई थी जो फ़सल किसीने फूट की
हमने शिद्दत से पकाई है
और हमें सींचे है बबूल
चुभन हमारी नस्लों ने पाई है !
जब तक ना इस खुदगर्ज़ी को दफ़नाओगे
कहीं हो, चैन से न कभी न जी पाओगे
क़त्ल से यों मिलती है सज़ा
कर यह क़त्ल आज़ादी तुम पाओगे !
वक़्त है अभी भी संभल जाओ
सोया है जो, ज़मीर वो जगाओ
याद रखो यह बात काम आयेगी
हमारा बोया हमारी औलाद खायेगी !

Monday, November 11, 2013

मकाँ कहता हूँ ...

मैं आज कल परेशां सा रहता हूँ
बंद हूँ चार दीवारों में, मकाँ कहता हूँ ...
लोग कहते है मुझसे कि दुआ करो
और मैं बस भला करता रहता हूँ
मैं आज कल परेशां सा रहता हूँ
बंद हूँ चार दीवारों में, मकाँ कहता हूँ ...
वो लेता रहता है इम्तिहाँ
मैं बस उसकी रज़ा में रहता हूँ
मैं आज कल परेशां सा रहता हूँ
बंद हूँ चार दीवारों में, मकाँ कहता हूँ ...
आँखों की नमी श।यद उसका पैमाना है
वो दिल में झांक कर तो देखे, मैं कितना भीगा रहता हूँ
मैं आज कल परेशां सा रहता हूँ

बंद हूँ चार दीवारों में, मकाँ कहता हूँ ...

Wednesday, August 7, 2013

भाषाओं का देश ...


भाषाओं के देश की हालत तो देखिए 
खुद की ना कोई भाषा, कैसी विडंबना देखिए ...
अनेकता में एकता, हँसी अब इस पर आती है
उत्तर की बात , दक्षिण को समझ कुछ ना आती है ...
शर्म कहु या मर्म , कुछ समझ ना मेरी आता है
देश में बात करने को विदेशी भाषा का सहारा लिया जाता है...
जननी थी जो सब भाषाओं की, दुर्दशा उसकी ना देखी जाती है
गिनती उसको पहचाने वालो की, हाथों में सिमट जाती है ...
माना विदेशी भाषा ज्ञान हमे प्रगति की और ले जाता है
गर भुला दे अपनी भाषा तो मूल्य अपना गिर जाता है...
अंपनी भाषा, संस्कार और संस्कृति को मज़बूत बनाती है
मज़बूत संस्कारो से प्रगती भी मज़बूत बन टिक पाती है ...
बिन अपनी भाषा , संस्कार शिथिल पड़ जाते हैं 
सभी जानते, हिलते पेड़ तूफ़ानो में ना टिक पाते हैं...
नीव तो अपनी हिल चुकी हैं 
समय रहते क्यों न हम समझ से काम ले 
लडखडा कर गिर जाए किसी दिन हम 
क्यों इससे पहले अपनी भाषा का दामन थाम ले ...

Saturday, May 18, 2013

कहानी एक सुबह की ...

साथ हमारे आज, गाडी में दो सज्जन आये
देखने में तो वैसे सामान्य ही वो नज़र आये ...
पीछे वाली हमारी सीट थी खाली
आ उन्होंने थी जो संभाली...
गई रात मैं कुछ कम सोया था
एक मीठी झपकी लेने के सपनो में खोया था...
उन सज्जनों के शक्ल में आज दु: स्वप्न आया था
राज यह समझ बहुत ही जल्द आया था...
आ कर जो उन्होंने अपनी चोंचे लड़ाई
लड़कियां बेचारी भी देख उसे शरमाईं...
खडखडाती गाडी में पास बैठे दोस्त की बाते समझ नहीं आती थी
पर मधुर वाणी उनकी, कान सबके भेद जाती थी...
पहले तो उन्होंने एक शहर भ्रमण करवाया
सभी जगहों को वहां की आँखों के सामने जीवांत करवाया...
फिर की उन्होंने अपने सामान्य ज्ञान की वर्षा
भीग जिस में हमारा मन अति हर्षा...
इतने पर भी बस होता तो हम खुश हो जाते
अगर पहले से जानते इरादे उनके, गाडी से अगली हम आते...
बाद इसके उन्होंने कुछ हवाई किले बनाई
एक ने दिया त्यागपत्र तो दूजे ने कंपनी अपनी लगाई...
लडको के कपडे महंगे होते है या लड़कियों के, बहस लड़ाई
किस्मत थी कुछ अच्छी, गाडी अपनी मंजिल पर आई...
उतर गाडी से जान में अपनी जान आई,
लड़कियां लड़कों से ज्याद बोलती है, कहावत उनके आगे गलत नज़र आई...

टूटी हुई सी वो आवाज़ ...

टूटी हुई सी उसकी वो आवाज़
मेरे अन्दर कुछ बिखेर सा जाती थी..
की कोशिश, करूं न मैं कुछ गौर
पर कुछ तो था, जो खींच ले जाता था मुझे उसकी ओर ...
दिल शायद उसका अभी अभी टूटा था
वादा किसी ने किया उससे झूठा था...
लड़खड़ाती अपनी आवाज़ से उसने कुछ समझाया
असर होता उसकी बात का न कुछ नज़र मुझे आया ...
कनखियों पर कभी कभी कुछ नमी नज़र आती थी
चुपचाप जो फिर पोंछ ली जाती थी...
अज़ीब एहसास मुझे कुछ हो रहा था
देख उसे बेचैन, बेचैन सा मैं हो रहा था...
उसके दिल से उठती टीस, मुझ तक भी आती थी
उस पर हो जाये खुदा की रहमत, दुआ लब पर आती थी...
आहिस्ता-आहिस्ता गला उसका रुध्ता जा रहा था
होगा मस्लाह हल, आसार नज़र न आ रहा था ...
अब तो डबडबा उसकी आँखें गई
थी जी आखिरी उम्मीद , शायद वो भी गई ...
जी में तो बहुत आया, पर हिम्मत न मैं जुटा पाया
जाता उसके पास, करता कुछ उस से बात
दवा उसके दर्द की जो न कर पता
हमदर्दी का मरहम , उसके ज़ख्मो पर रख आता ...
याद आज भी जब वो शाम आती है
उस आवाज़ की तड़प, बेचैन मुझे कर जाती है ...
(एक सच्ची घटना पर ...)

कवि का हाल ...

कविताई का हमको शौक है
कभी कभी ज़रा फ़रमा लेते है...
चिंता में डूबे हुए सब यार है
कभी कभी उनको गुदगुदा लेते है...
कवि तो कवि हैं
कहीं से भी हास्य निकाल लेते है...
और जनता तो जनार्दन है
हास्य का जाने क्या अर्थ निकल लेते है...
कभी तो अर्थ ऐसे-ऐसे निकाले जाते है
जिनसे कवि महोदय के पहाडे उलटे पढ़ जाते है...
कल का ही अभी एक किस्सा लीजिये
किस्सा एक श्रीमान-श्रीमति का सुनाया...
कैसे बनता है रात का खाना,
भेद हमने उनको समझया...
कैसे हमारे श्रीमानजी की विनती आती हैं
और प्यारी श्रीमतीजी कैसे उसे निभाती हैं...
जान कर यह भेद, सवाल जनता का आया
कविवर कहीं अपने घर का राज़ तो नहीं बतलाया...
सवालों से ऐसे, चिंता की लकीरे बदल जाती है
छोड़ जनता को, कवि के चेहरे पर आ जाती हैं ...
बात यह छोटी सी, जनता को समझना चाहिए
बाते राज़ की कम कुरेदना चाहिए...
जो समझाया है कवि ने दबे शब्दों में
बात का इशारा चुपचाप समझ जाना चाहिए...
श्रीमतीजी पर श्रीमानजी दे जो ज्ञान
श्रीमतीजी वो न कभी पाए जान ...
यह न भूले, धर्म पत्नी, कवि की भी होती है
और धर्म पत्नी में एक ज्वालमुखी छुपी होती है ...
यह ज्वालामुखी "शिकायत" की चिंगरी से भड़कता है
कर जिसकी कल्पना, कवि का ह्रदय जोर से धड़कता है...
आप तो बस यह परिहास कर जाते है
परिहास पर कविवर बेचारे नप जाते है...
बात यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए
श्रीमानजी का हो न हो,
श्रीमतिजी का हमेशा गुणगान होना चाहिए...

नेता और आई- टी !!!

बैठे बैठे का हमको ख्याल एक नया आया
कैसे जाए अपने नेताओं को आई- टी की भाषा में समझाया !!
एक प्रयास प्रस्तुत है !!!

माननीय मुलायम सिंह जी - मेलिशियास गतिविधियों का डर है... एंटी-वायरस नया डलवाये !!!
माननीय शरद पवार जी - ऑपरेटिंग सिस्टम ही कृप्ट है... सिस्टम तुरंत फार्मेट करवाये !!!
माननीय राजा जी - चुम्बकीय तरंगे इधर उधर जाती है ... ओथानटीकेशन तुरंत इनेबिल करवाये !!!
माननीय लालू जी - प्रोसिस यह रिसोर्स इटर है ... प्रोसिस किलर टूल तुरंत इस्तमाल में लाये !!!
माननीय करुणानिधि जी - मेनूफेकचरर ही बेकार है ... कोई प्रोडक्ट इस्तमाल में न लाये !!!
माननीय मनमोहन जी - हार्डवेयर ठीक है ... इस्तमाल के लिए नया साउंड ड्राइवर डलवाये !!!
माननीय राहुल जी - दिखावे पर बिलकुल मत जाइए ... तुरंत नया स्पाम फ़िल्टर लगवाइये !!!
माननीय सोनिया जी - इशू बड़ा है, समझ न आता है ... मशीन को वापस मेनूफेकचरर को भिजवाइये !!!

हमारे नेताओं की लिस्ट तो और बढती जाती है
और मेरी समझ से आई- टी की टर्म्स छोटी पड़ जाती है !!!
आगे जो दिल करे नाम जोड़ते जाइये
हो सके को एक नहीं शब्दावली बनाइये !!!

जाने कौन सी है यह भाषा !!!

भाषा में तो हम शुरू से ही अज्ञानी थे,
लताड़े गुरु जी से हमेशा हम जाते थे !!
फिर की हमने कम्पूटर की पढाई
यहाँ हो गई थी अब कड़ी और लड़ाई !!
बाते लोगो की हम अब थक तो समझ जाते थे
की जब से चैट शुरू, बोल सर के ऊपर से जाते थे !!
जाने कौनसी भाषा लोग यहाँ प्रयोग में लाते है
मतलब समझ ने में एड़ी चोटी के जोर लग जाते है !!
पहला शब्द था "एल-ओ-एल", जिस पर हम गये थे डोल
हमने बोला था, भाई रे मुंह तो आगे कुछ खोल !!
हम जब ऐसा बोला तो "आर-ओं-एल-ऍफ़" फिर लिखा पाया
देख अपने दोस्त की हालत मलतब इसका समझ आया !!
"एच-आर-यु" और "जी-ऍम" भी यहाँ सबसे पहले बोलते हैं
पता नहीं, क्या ये दो प्यारे शब्द भी काटने को दौड़ते हैं !!
"ऍफ़-वाई-आई" ने जहाँ हमारी जानकारी को बढ़ाया
वहीँ "ऍफ़-वाई-ऐ" ने काम में हमारे इजाफा करवाया !!
"पी-टी-सी" जब एक दोस्त ने हमको बोला था
पड़ोस का पुलिस ट्रेनिग सेण्टर आँखों के सामने डोला था !!
"एच-ऍम-ऍम-ऍम" शब्द यह तो है बड़ा ही भारी
खोजने वाले के इसके रहेंगे हम सदा आभारी !!
बिना कुछ कहे ही देना हो अगर बात को विराम
प्रयोग दो बार इसका, लगा देता वहां पूर्ण विराम !!
"आर-यु-टी" सही से करता है ब्जज्ज़ का काम
सोते हुए जो जगाना, यही तो है इसका काम !!
"एस" शब्द ने तो नींद ही उड़ाई थी
होते होते बची हमारी खिचाई थी !!
"डब्लू-टी-ऍफ़" भी कहीं कहीं सामने आ जाते है
इनका तो छोटा होना ही सही, बात हम मान जाते है !!
याद है हम को वो जब करने बात ज़रूरी हमने गुहार लगाई थी
कुछ महानुभावो ने "टी-टी-वाई-एल" की तख्ती फिर लटकाई थी !!
"बी-आर-बी" तो जल्दी समझ आई थी
जब हमारी बात की जबाब एक घंटे तक न आई थी !!
"एन-पी" भी कभी किसी ने हमको बताया था
ख़ुशी की बात को जाने क्यों उसने संछेप में बताया था !!
"टी-सी", "डब्लू-सी" और "टी-वाई" भी बहुत पढने को आते है
इतनी सुन्दर बातों को लिखने में क्या हाथों में छाले पड़ जाते है !!
"बी-टी-डब्लू" ने काम अपना हमेशा ही निभाया
भटकती चैट को सही रास्ते पर इसी ने लाया !!
"ओं-ऍम-जी" सही सही हम से मेल खाई थी;
एक यही थी बात जो हमारे मुंह पर आई थी !!
और जाने कितने कितने बाते हम बतायेंगे
यहाँ सब "जी-आर-8" और हम मुर्ख यही मान जायंगे !!
चलो जी अब बहुत हुआ, "जी-टी-जी" बस अब है
पर जाने से पहले "जी-एन" और "एस-डी" सबको है !!

(काफी समय से सोच रहा था यह लिखने को , आज काम कर ही डाला !!!)

बाई महिमा !!!

देवी जी कल एक, बस में हमारी आई
बैठ बगल में उन्होंने फ़ोन लगाई !

कानो में हमारे फिर उनकी मधुर वाणी आई
लगा हमे को सुबह सुबह बॉय- फ्रेंड को फ़ोन लगाई !

शब्द कानो में फिर कुछ और आये
क्या था असल माजरा हम तब समझ पाये !

दो दिन से "बाई जी" उनकी नहीं आई थी
चल रही उनपर मक्खन लगाई थी !

देवी जी हमको तो कुछ अबोध नज़र आई
"बाई महिमा" शायद अभी उनको नहीं समझ आई !

हे ईश्वर दे अज्ञानियों को कुछ ज्ञान
इसी भावना से करते हम "बाई महिमा" गुणगान !

हे बाई जी, अब सूरज की उपमा आप से दी जाती
जिस दिन आप न आये, सुबह ही न हो पाती !

घर की शोभा अब आप से दर्शायी जाती
जहाँ जितना आप का वास, उतनी ही समर्धि बताई जाती !

लक्ष्मी जी के गुणगान अब कुछ कम गाये जाते है
अन्नपुर्णा सब अब आप को ही बताते है !

सत- दिन न हो जिस घर आप के दर्शन
फिर आते उस घर बस नये ही कुछ बर्तन !

घर का कोना कोना आप की ही दया से दमकता
न हो दर्शन आप के तो अव्य्वस्तिथ सा सारा घर लगता !

पुरानी अपनी चीजों से हम काम अपना ही चलाते है
की जब भी आपने कोई इच्छा, चीजें आपको नई ही हम लाते है !

कोई कष्ट न छुने तक पाये आप की कोमल-कंचन काया
यही सोच सब सुविधा को हमने आप तक पहुँचाया !

बच्चे हमारे अब आप के ही हाथों पाले जाते है
माँ-बाप तो बस सुबह- शाम एक झलक पाने आते है !

आप की आज्ञा जो किसी अज्ञानी ने मानी
समझिये समस्यायें बहुवचन में उसने घर आनी !

खुशियों तो बस उनके ही हिस्से में आई
परम वन्दनीय जिन्होंने मानी अपनी "बाई" !

कैसा सम्मान ...

खबर कल फिर ऐसी सुनी
सुन जिसे भिर्कुटी तानी ...

जांबाज़ था एक सिपाही,
नाम था जिसका "बाना" ...

१९८७ में सियाचिन में लक्ष्य था
झंडा भारत का फेहराना ...

दुश्मन के आगे उसने अदम्य साहस दिखाया
परम वीर का सम्मान तब सेना से उसने पाया ...

1998 में जब कारगिल ने आवाज लगाई
जिम्मेदारी वहां भी उसने पूरी निभाई ...

अब था उसको लेना कुछ आराम
इसलिए दिया उसने सेना सेवा को विराम ...

अब थी सरकार की बारी आई
कर्मठता उन्होंने भी पूरी निभाई ...

सरकार ने पेंशन फिर उसका लगवाया
हर महीने पैसा उसके खाते में डलवाया...

देख पेंशन का पैसा सर "बाना" का चकराया
खाते में जब १६६ रूपये जमा उसने पाया...

एक ही है सवाल उसकी और हमारी समझ न आता है
यह कैसा है सम्मान जो हमारे यहाँ वीरों को दिया जाता है...

आत्मसमर्पण पर आतंकवादी भी हजारों / लाखों पाते है
ले रिश्वत नेता- अधिकारी करोड़ो का खेल सजाते हैं ...

और वतन पर जो ज़ान फ़िदा कर जाते है
अक्सर बच्चे उनके भूखे ही रह जाते हैं ...

लगता है मर गया है ज़मीर अपना भी
हम भी बस कहानी पढ़ते है और सो जाते है ...

(PS: Interview of Bana Singh is available on Internet.)

आप बीती ...

श्रीमती जी ने मायके जाने का जो आदेश फ़रमाया

सोच अपने खाने की, दिल में जरा घबराया ...

बस पांच-सात दिन की ही तो बात है,

देखते देखते निकल जायेंगे, उन्होंने दिलासा दिलाया ...

दे दिलासा उन्होंने तो अपनी राह ली

फ़ूड कोर्ट में है अब जाना, सोच कमर हमने कस ली ...

पहले दिन नाश्ते में "पोहा" आया

खा जिसे थोडा सा साहस आया ...

लंच में जब थाली उठाई

देख उसको समझ आया कितनी होती यहाँ सफाई ...

अवशेष बता रहे थे

हमसे पहले लोग क्या खा रहे थे ...

नई फिर हमने एक थाली लगाई

चबाने में वो आलू, दांतों ने खूब जोर लगाई ...

स्वाद से आलू से अभी उबार न पाया था

अगले दिन नाश्ते में उपमा एक नया अचरज लाया था ...

उठाने में पहली ही चम्मच , जोर हमने बड़ा लगाया

चम्मच ने जब परते खोली, सूखे रवे का पहाड़ अन्दर नज़र आया ...

काउंटर पर जा हमने उसकी शिकायत लगाई

इतने में एक देवी जी भी फरियाद अपनी ले वहां आई ...

चटनी हो गई है आप की खराब उन्होंने समझाया

महक ने उसकी , साथ देवी जी का पूरा निभाया ...

अगले दिन का मेनू तो और भी भला था

बैंगन भरता देखा ऐसा लगा, तेज के कुए पर खड़े हो उसको तला था ...

उसके बाद थे चावलों की बारी

यह चीज़ है हमको सदा से प्यारी ...

देख उसकी हालत मैं यह समझ न पाया

बनाने वाले ने पुलाव था या हलवा बनाया ...

वो भोग भी हमने बड़े दिल से लगाया

और फिर हम ही जानते, कैसे हमने उसे पचाया ...

अगले रोज थोडा सा दिल ललचाया

मेनू में एक दिल पसंद चीज़ को पाया ...

थाली में हमारी अब बस कढ़ी ही नज़र आई

बाकी पकवान को किनारे ने थोड़ी जगह मिल पाई...

यकीन जानिये चखने से ज्यादा मैं कढ़ी न खा पाया

सालो में पहली बार हुआ, खाना मैं थाली में छोड़ आया ...

जैसे तैसे उस हफ्ते की आखरी शाम भी आई

उस तो तो गज़ब ही हुई रुसवाई ...

ढोकला इडली पर उस दिन दिल अपना आया

कुछ भी हो दिल से इसे जयेगा खाया, बस यही ख्याल तब हम को आया...

तीखा करने उसके स्वाद की कुछ मिर्ची की याद आई

देख मात्रा मिर्ची की, थोड़ी और की गुहार हमने लगाई ...

बिना मिर्ची के कैसे बदन जलता है बात तब समझ आई

मिर्ची के ढेर से जब गिनकर एक मिर्ची उसने हमे थमाई ...

अपने उपर हमने जाने कैसे काबू पाया था

औए सहर्ष मिर्ची को उसे ही लौटाया था ...

शुक्र मनाते है हफ्ते की ही बात थी

फ़ूड कोर्ट को झेलना इससे ज्यादा, बस की न बात थी...

बात अभी तक मैं यह न समझ पाया

क्या सारी इंसानियत को इंसान बेच खाया ...

दाम और मात्रा को इन्सान जैसे तैसे भूल ही जाए

गर खिलाने वाला, खाना कुछ आच्छा खिलाये ...

आप क्या कहते है ???

दबंगई की परिभाषा बदल गई है, बताता हूँ
क्या है नई परिभाषा, आओ सुनाता हूँ ...

पुरुष होते है दबंग, कभी था सुना
आज मुझे लगता, दबंगई है महिलयाओं का गहना ...

पुरुष तो अब चुपचाप पतली गली निकल जाते हैं
महिल्याये ही है जो बात-बात पर मैदान में डट जाते है ...

समझ इसे बे सिर-पैर की बात, आप क्यों मुस्काते है
सुनिए मेरे तर्क, फिर देखिये कितने लोग समर्थन में आते है ...

पीछे जाने से पहले आज की ही बात बताता हूँ
हुआ क्या सुबह आज बस में सुनाता हूँ ...

अपनी बारी पर उतारते, साब एक मोहतरमा के रास्ते आगये
फिर दिए जो ताव मोहतरमा ने, देख उन्हें पसीने हमे आगये ...

लगा हमे, अपनी बारी पर बस से उतरना जैसे साब का गुनाह था
"लेडीज़-फर्स्ट" शायद उन्होंने कभी सुना ही न था...

बस ही की हमे एक और कहानी याद आती है
थके-हारे शाम को घर जाते, बस में झपकी सबको आ ही जाती है...

काँधे पर किसी जनाब के जो किसी मोहतरमा का सिर आ जाये
रहती कोशिश खलल न उनकी नींद में कोई आये ...

और कहीं आप का सिर उन के काँधे को छु भर जाये
मिलेगी जब फिर मीठे शब्दों की तपिश, तो फिर नींद किसे आये ...

सड़कों पर आजकल कुछ किस्से तो आम हैं
कायदा-कानून, उन्हें न पता किस चिड़िया के नाम हैं ...

सैर चल रही कल बेगम के साथ थी
टोली ३/ ४ मोहतरमाओं की आती गलत हाथ थी ...

देख तेवर उन्हें हमने पहले ही उनको राह दी
गुजरते उनके हमको लगा, शायद कुछ और की उनको चाह थी ...

सिगनल्स तो सड़क पर कैसे तोड़-मरोड़ दिए जाते है
राम ही जाने कहाँ इनको इसके क्रेश-कोर्स दिए जाते है ...

और साब, आप में अगर बूता है तो इनसे साइड ले कर बताइए
साइड जो मिल जाये तो, सीधा गिनीज़ बुक में अपना नाम लिखवाइए...

"हम जहाँ खड़े हो जाये, लाइन वही से शुरू हो जाती है "
यह बात बस दुनिया में इन्हें ही समझ आई, बाकी ने तो बात कहने को दोहराई ...

हमने तो इस को बहुत बार आजमाया है
बस बे की हर कतार में महिलयाओं को ही आगे पाया है ...

गिलहेरी सी फुदक फुदक ये जाने कहाँ कहाँ घुस जाती है
और जो टकरा जाये आप इनसे, लाल-पीली आँखे फिर ये दिखाती हैं ...

कोई माने या न माने, देख इनके तेवर हमने तो माना
" हाय राम, कुड़ियों का है जमाना "...

ग्रीनर आई-टी (आप का क्या ख्याल है )

बढ़ते दाम और घटते वेतन, क्या गड़बड़ झाला
फल सब्जी के दामों ने दिमाग ही हिला डाला...

इस बार न मिलेगा इन्क्रीमेंट,
कह आई- टी वालो ने, आग में जैसे घी ही दे डाला ...

इनोवेशन तो जैसे अपनी बपौती है
झट एक नया सुझाव हमने दे डाला ...

ग्रीन अपनी आई- टी को ग्रीनर हम बनायेंगे
खाली पड़ी यहाँ इनती जगह, बाग़ वहां लगायेंगे ...

हर एंट्री पर केले के पेड़ लगवाए जायेंगे
दोहरे काम वो केले के पेड़ आयंगे ...

सुबह-सुबह नाश्ता हो जायेगा
और गुरुवार को मंदिर का काम ऑफिस में हो जायेगा...

आने जाने के रास्तों में आम और संतरे लगवाये जायेंगे
पुरे साल काम ये भी बहुत आयेंगे...

गर्मी में धुप से और सावन में बारिश से बचायेंगे
छातों के खर्च में तो यह ज़रूर कमी लायेंगे ...

दूर के हर कोनो को तरबूज की बेलें जायेंगी
सूरज ढले काम यह बहुत आयेंगी ...

बेलों के अंत में रजनीगंधा और रात-की-रानी को लगाया जायेंगा
पंछियों को अच्छा वातावरण महोइया वहां कराया जायेगा ...

बीच-बीच में नीम के पेड़ भी लगवाये जायंगे
क्या बताने की ज़रूरत है, किस काम वो आयेंगे ...

सभी बिल्डिंग्स के किनारे, कियारियाँ को लगवाया
सब्जी तरकारी का जुगाड़ वहीँ से कराया जायेगा

क्वालिटी से न किया जायेगा कोई समझोता
निगरानी इसकी रखेगा विशेष उड़न दस्ता

सुरक्षा तो है हमारे लिए सर्वोपरी
व्यवस्था उसकी भी हमने पूरी करी...

सी-सी-टी-वी कैमरा हर जगह लगाये जायेंगे
सी-आर-पी-अफ के लोग उसकी निगरानी को लगाये जायेंगे...

सुविधाए साब मुफ्त में तो नहीं आती है
कीमत इसकी यहाँ अब बताई जाती है...

आगे से सी-पी-आई और आई-पी-आई नये रूप में दी जायेगी
अब तक आती थी रूपये में , अब किलो में दी जायेगी ...

सी-आर-आर प्लस में जो लोग लायेंगे
आम- अनार वो लोग अपने घर ले जायेंगे ...

सी-आर-आर थोडा कम जो लायेंगे
केले- अमरुद से वो लोग काम चलायेंगे ...

विभिन्न श्रेणियों का इसी तरह रखा जायेगा
वरना आज के दौर में फल-सब्जी, अपने वेतन में तो न आयेगा ...

कॉस्ट कटिंग...

आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई
चहुँ ओर देते, चिन्ह इसके दिखाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

कभी कुम्भ सी जाती थी यह मनाई
दिवाली से अब तो हर बरस जाती मनाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

उडती ख़बरों पर सबसे पहले रोक लगाई
नये साल से न दिया कोई अखब़ार दिखाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

चाय- बिस्किट ने हमेशा ही नींद भगाई
नई के बहाने मशीने पुरानी सब हटवाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

गर्म- ठन्डे पानी की नदियाँ हमे बहुत बहाई
भरने एक बोतल अब लाइन हमने लगाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

गर्मी में पंखों ने जान सभी की बचाई
न अब देते वो पंखे चलते दिखाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

मौजे थी पार्टियों में हमने खूब मनाई
आदत यह हम पर अब भारी देती दिखाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

विदेश में जा की बहुत कमाई
स्वदेश में आ , आती बहुत रुलाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

खुश थे बहुत, जब पाँचो उंगलियाँ घी में नहाई
घबराते हो अब, जब मुसल सर पर आई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

क्यों भूले वो दिन, जब तुमको मौज कराई
तंग जो हुए हाथ, झुंझलाहट क्यों तुमने अपनाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

चैन की बंसी अब तक बहुत बजाई
समय है बदला, करो कमर कसाई
आई आई आई, फिर से "कॉस्ट कटिंग" आई ...

(Just For Fun )

मैं और मेरी सड़क यात्रा ...

गये कुछ महीनो काम पर जाना था अति दूर
खुश थे हम, सोचा शहर भ्रमण का मजा लेंगे भरपूर ...

शुरू में तो सरकारी सेवाओं के मजे खूब हमने उडाये
लेने ताज़ी हवा का आनंद दुचाकी के साथ मैदान में आये ...

अभी तक सुनी थी जो कथाये, चरितार्थ नज़र आईं
देख हालत यातायात की, जान हमारी बड़ी घबराईं ...

सुरक्षा के डर से हम रहते थे हमेशा घबराये
पर कुछ विशेष तथ्य जो निकल के सामने आये ...

सबसे बड़ी हैरानी, अधिकांश जनता को रंग अन्धता का शिकार पाया
लाल- हरी बत्ती का अंतर कभी उनको समझ न आया ...

इन दो रंगों में बेचारे उलझ हमेशा जाते
खुद भी होते परेशान, परेशानी औरों को पहुंचाते ...

अक्षर ज्ञान भी उनसे थोडा दूर ही नज़र आता
५० के निशान पर कोई ७० के नीचे नहीं जाता ...

चिन्हों की समझने की क्षमता भी यहाँ जरा कम पाई जाती है
"नो- पार्किंग" के नीचे है पहली गाडी लगाई जाती है ...

सड़क पर आ लोग कुछ बोराये से जाते हैं
बाये को दायाँ समझ, ओवर-टेक लगाये जाते है ...

करते है इशारा दाये को जायेंगे
कौन जाने कब बदले मूड, बाये को ये मुड जायेंगे...

कुछ भाई-बंधू तो इतना खो जाते है
बीच सड़क पर ही जाने क्या सोचने खड़े हो जाते है ...

एक बात तो दिल बड़ा दुखती है
हम है इतने समर्द्ध देश, पर जनता भूखी पाई जाती है ...

"स्पीड थिरिल्स-बट किल्स" बात न पूरी कभी हो पाती है
आधा भाग तो बेचारी भूखी जनता खा जाती है ...

अरे साब, ऐसा न सोचिये कमियां ही हमको नज़र आई
कुछ थी खूबियाँ भी, आकर्षित जो हमे कर पाई ...

समन्वय की भावना को लोगो में खूब पाया है
जहाँ थी जगह २ कतारों की, ५ गाड़ियों की कतार लगाया है ...

यह भावना कभी कभी और फूट कर बाहर आती है
जरा छु जाये दो गाडिया आपस में, फिर भरत-मिलाप की कहानी याद आती है...

कला हमारे यहाँ एक अनोखी पाई जाती है
हमारा ही है देश जहाँ नब्बे अंश पर गर्दन मोड़ गाडी चलाई जाती है ...

और कुछ भाई तो ऐसी करामाती गाड़ियाँ चलाते
देख उनका लहराना, नव-यौवना नाग-नागिन भी शर्माते...

शुमाकर -अगस्तिनी हमे हर दूजी गली में नज़र आते
सरकारी संरक्षण मिले उनको तो कितने खिताब घर आते...

सड़क पर चलना आज लगता जैसे एक लड़ाई है
अच्छा है समय रहते हम संभल जाये, वरना और घमासान होनी यह लड़ाई है ...

बाते तो जाने कितनी है, सोच हम थोडा भाव-विभोर हो जाते
यकीन मानिये, रोज़ सही-सलामत घर आ, ऊपर वाले को शीश नवाते ..
(Enjoying driving in pune these days USPS to Kharari)

An Idea Can Change Your Life ...

सदियों पहले "नारद जी" ने
"रत्नाकर " से पूछा एक सवाल
क्या वो बनेगे पाप के भागी
करते हो जिनके लिए यह अत्याचार
जबाब ने झकझोरा था "रत्नाकर" को
उसने खोजा था फिर "वाल्मिकी" को
काश यह सवाल भी प्रथा बन जाता
और हर पुरुष इस सवाल को दोहराता
तस्वीर शायद कुछ और फिर बन जाती
कौन जाने एक सवाल से जिन्दगी बदल जाती ...

ई-ऍम-आई...

हम को लेकर हमारे बाप के सपने थे हाई
तो बड़े कॉलेज में करने भेजा हमको पढाई
छोटी सी सेलेरी में खर्च बड़ी न यह समाई
लिया लोन और अब चुकाते "ई-ऍम-आई "...
लग्न लगा पूरी की हमने पढाई
और फिर बांध गई अपने गले में टाई
काम बड़ी कंपनी में हम पाई
और ख्वाब अपने भी हो गये हाई-फाई ...
नये रंग का असर दिया जल्द दिखाई
गर्ल- फ्रेंड हमने भी अपनी एक बनाई
सैर-सपाटे को बाइक की याद आई
और मदद जिसने की वो थी अपनी "ई-ऍम-आई "...
किस्मत ने फिर घंटी अपनी बजाई
मिली ऑन-साईट और विदेश चल दिए "आज़ाद" भाई
पश्चिमी चका-चौंध ने दी मति फिराई
और ऐश में उडती सारी कमाई ...
चार चवन्नी, दो अठन्नी ले घर लौटे "आज़ाद" भाई
घर बजी शेहनाई और बड़े घर की दुल्हन पाई
विदेश में हनीमून और महंगी मुंह दिखाई
इस बार भी लाज़ जिसने बचाई, वो थी अपनी "ई-ऍम-आई "...
करते क्यों खराब रेंट में अपनी कमाई
खरीद भी लो एक फ्लैट, ससुरे की सलाह आई
फ्लैट ने भी भली माया दिखाई
रेंट से तिगुनी भरता मंटीनेन्स और अपनी "ई-ऍम-आई "...
सुविधाये सारी घर बीवी ने जुटाई
सजावटी समान देता सब मस्त दिखाई
कौन जाने बैंक करते कितनी कमाई
पर्सनल लोन की चुका रहा मैं अपनी "ई-ऍम-आई "...
डर सताता था, होगी कैसे बच्चो की पढाई
नई एक स्कीम ने राहत की सांस है दिलाई
लोन पर की जा सकेगी प्रायमरी की पढाई
जिंदाबाद-जिंदाबाद अपनी "ई-ऍम-आई "...
सोचो तो सब दुखो से बचती "ई-ऍम-आई "
ले लोन बस याद रहता कैसे चुकाएं "ई-ऍम-आई "
विश्व शान्ति का मन्त्र लगती मुझको अपनी "ई-ऍम-आई "
रगों में अब लहू ना दौड़े, दौड़ रही बस अपनी "ई-ऍम-आई "...

बस इसी ख्याल में ...


उसकी निगाहों की गहराई में 
शायद कहीं मैं भी हूँ 
बस यही सोच उनमें उतरा 
और फिर कभी उबार  पाया ...
उसके दिल के किसी कोने में
शायद कहीं मेरी जगह भी हो 
बस यही सोच उस भूल-भुलैया में आया 
और अभी भी भूल-भुलैया में खुद को पाया...
उसकी जुल्फों की एक गूथ तो होगी
शयद मेरे ख्याल में बाँधी होगी
बस इसी सोच में उनमें उलझा
और परांदा बन दिल उनमें गुथा पाया...
लबों पर शायद एक मुस्कान तो आती होगी
और सुर्खी कुछ गालो पर उभर आती होगी
कभी जब मेरा नाम उनके तसव्वुर में होगा आया
बस इसी ख्याल में टकटकी बांधे उनको निहारते खुद को पाया ...
(आज सुबह ऑफिस आते कुछ ऐसे ख्याल दिल में आये )